राष्ट्रीय पत्रकार सुरक्षा परिषद रजि0, वाराणसी अध्यक्ष जगदीश शुक्ला की कलम से✍️
सुहाग चुरा ले गया कश्मीर
चूड़ी की खनक अभी थमी न थी,
मेंहदी के रंग ने जमीं न छोड़ी थी,
घूंघट में अब भी सपनों की महक थी,
और पायल में बसी थी नयी ज़िन्दगी की रेख।
हाथ थामे जब वो वादियों में चला,
हर झोंका जैसे प्रेम की भाषा बोला,
मैंने खुदा से कुछ और न माँगा…
बस उसके साथ का हर पल माँगा।
पर एक मोड़ पर...
गुलाब की घाटी में बारूद की बू आई,
वो चीख़ न सका... मैं चिल्ला न सकी,
नाम पूछा, धर्म जाना... और गोली चल पड़ी।
वो गिरा, मैं जमीं से लिपट गई,
कंगन टूटा, मांग सूनी हो गई,
सिंदूर बह गया... और मेरी दुनिया ख़ामोश हो गई।
क्या यही था मेरा कश्मीर?
जहाँ प्रेम हार गया, और नफ़रत ने जीत ली?
जहाँ स्त्री का आँचल लहू से भर गया,
और उसके आँसू पहचान पूछते रहे?
अब मैं नहीं रोती...
मैं जलती हूँ, चीत्कार करती हूँ,
मैं हर हिंदू स्त्री की चीख़ हूँ —
जो पति को कफ़न में लिपटे देख चुकी है।
क्या तुम अब भी चुप रहोगे?
या इस आग को शब्द दोगे, स्वर दोगे?
क्योंकि जो आज मेरी बारी थी...
कल वो तुम्हारी हो सकती है।
ना सिर्फ़ मेरी मांग उजड़ी है,
बल्कि तुम्हारे राष्ट्र का माथा झुका है।
ना सिर्फ़ मेरी चूड़ियाँ टूटी हैं,
बल्कि इंसानियत की कलाई लहूलुहान है।
वो बस मेरा पति नहीं था,
एक नागरिक था भारत का —
जो अपने ही देश की धरती पर
अपने ही नाम से मार दिया गया।
क्या अपराध था उसका?
कि वो आरती करता था?
या फिर उसने ‘हर हर महादेव’ कहा था
जब घाटी की हवा में सिहरन थी?
मैं चुप नहीं बैठूँगी।
मैं आँसू नहीं, अब आग बहाऊँगी।
मैं प्रतीक्षा नहीं करूँगी,
अब प्रश्न करूँगी — साक्षात् सत्ता से।
भारत सरकार से पूछती हूँ —
कब तक हमारी चिताएँ जलती रहेंगी?
क्या हमारी जान की कीमत
एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस से ज्यादा नहीं?
हर शहीद हिंदू के पीछे
एक सुहागन की लाश चलती है,
और हर विधवा की आँखों में
अब सिर्फ़ बदला पलता है।
पहलगाम अटैक में शहीद हुए सभी निर्दोष भारतीयों को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।